देहरादून में अबीर गुलाल की नई पहचान: केमिकल-फ्री रंगों से सुरक्षित और टिकाऊ होली

/ द्वारा रिमा भारती / 0 टिप्पणी(s)
देहरादून में अबीर गुलाल की नई पहचान: केमिकल-फ्री रंगों से सुरक्षित और टिकाऊ होली

देहरादून में शुरू हुआ केमिकल-फ्री होली रंगों का चलन

हर साल होली आते ही रंग-बिरंगे गुलाल की चर्चा शुरू हो जाती है, लेकिन इस बार देहरादून में एक खास बदलाव दिख रहा है। यहां के कारीगर और छोटे-बड़े निर्माता मिलकर अबीर गुलाल को पूरी तरह से केमिकल-फ्री बनाने में जुटे हैं। इन रंगों की खूबी ये है कि इनमें सिर्फ प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल होता है — जैसे हल्दी, नीम, चंदन, गेंदा, गुलाब की पंखुड़ियां और दूसरी जड़ी-बूटियां। इससे रंग खेलने का मजा भी दोगुना और त्वचा पर कोई खतरा भी नहीं।

जानी-मानी कंपनियां जैसे 'जलानी गुलाल' और 'हिमालया ट्री – ऑर्गेनिक्स फ्रॉम हिमालया' इस बदलाव की अगुवाई कर रही हैं। उनकी दुकान पर हल्दी से बना पीला, चुकंदर से तैयार गुलाबी और नीम के पत्तों से हरा रंग आसानी से मिल जाता है। खास बात तो यह है कि इन रंगों में लेड, पारा, या कोई भी नुकसानदायक केमिकल नहीं मिलाया जाता। हर रंग सौ प्रतिशत बायोडिग्रेडेबल और पानी में घुल जाता है, जिससे जल स्रोत भी सुरक्षित रहते हैं।

सुरक्षा, परंपरा और सततता के इर्द-गिर्द घूमता है देहरादून का गुलाल बाजार

अगर आपको लगता है कि ऐसे प्राकृतिक रंग बाजार में महंगे बिकते होंगे, तो ज़रा सोचिए – देहरादून में ये गुलाल महज ₹399 प्रति किलो मिल रहे हैं। इतनी किफायती कीमत पर सुरक्षित और टिकाऊ रंगों की उपलब्धता अब लोगों की प्राथमिकता बनती जा रही है, खासकर उन परिवारों के लिए, जिनके घर में छोटे बच्चे या सेंसिटिव स्किन वाले लोग हैं।

यह बदलाव अचानक नहीं आया। दरअसल, बीते कुछ सालों में केमिकल आधारित रंगों से होने वाली एलर्जी, त्वचा की बीमारियां और पर्यावरण पर बढ़ते प्रभाव को लेकर लोग सतर्क हुए हैं। इसी लहर में देहरादून के युवा उद्यमी व पुराने कारीगर दोनों साथ आ गए। वे पारंपरिक ज्ञान को नए विज्ञान के साथ जोड़कर एक ऐसा विकल्प पेश कर रहे हैं, जिसमें न तो त्वचा को नुकसान है न ही कुदरत को।

ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि ये पहल न सिर्फ यहां के स्थानीय रोजगार को बढ़ावा दे रही है, बल्कि होली जैसे पारंपरिक त्योहार को भी उसकी असली सादगी और रंगों की मिठास के साथ लौटाती है। न कोई बदरंग छाया, न बाजार में बिकने वाला झिल्लास पाउडर, न गाढ़ा कैमिकल्स की बदबू — सिर्फ फूलों और जड़ी-बूटियों की खुशबू में भीगी होली।

  • प्राकृतिक रंगों की खपत से बायोडिग्रेडेबल वेस्ट बढ़ने का सवाल नहीं उठता।
  • ये रंग आंखों व बालों पर भी सुरक्षित हैं, जिससे बच्चें और बड़े सभी बेफिक्र होकर खेल सकते हैं।
  • स्थानीय किसानों और बागबानों की आय में इजाफा, क्योंकि फूल, जड़ी-बूटी और अन्य कच्चा माल यहीं से जुटाया जाता है।

देहरादून की गलियों में इस होली माहौल कुछ बदला-बदला सा है — रंग वही हैं मगर संवेदनशीलता ज्यादा है। यहां की होली अब न सिर्फ खुबसूरत बल्कि स्वस्थ और इको-फ्रेंडली भी है, जिसे देखकर लगता है कि आने वाले सालों में देश भर में ये चलन तेजी से फैलेगा।

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